रिश्तों की डोर

ज़िंदगी मां के आँचल की गांठों जैसी है. गांठें खुलती जाती हैं. किसी में से दुःख और किसी में से सुख निकलता है.

हम अपने दुःख में और सुख में खोए रहते हैं. न तो मां का आँचल याद रहता है और न ही उन गांठों को खोलकर मां का वो चवन्नी अठन्नी देना.

याद नहीं रहती तो वो मां की थपकियां. चोट लगने पर मां की आंखों से झर झर बहते आंसू. शहर से लौटने पर बिना पूछे वही बनाना जो पसंद हो. जाते समय लाई, चूड़ा, बादाम और न जाने कितनी पोटलियों में अपनी यादें निचोड़ कर डाल देना.

याद रहता है तो बस बूढे मां बाप का चिड़चिड़ाना. उनकी दवाईयों के बिल, उनकी खांसी, उनकी झिड़कियां और हर बात पर उनकी बेजा सी लगने वाली सलाह.
आखिरी बार याद नहीं कब मां को फोन किया था. ऑफिस में यह कहते हुए काट दिया था कि बिज़ी हूं बाद में करता हूं. उसे फोन करना नहीं आता. बस एक बटन पता है जिसे दबा कर वो फोन रिसीव कर लेती है. पैसे चाहिए थे. पैसे थे, बैंक में जमा करने की फुर्सत नहीं थी.

भूल गया था दसेक साल पहले ही हर पहली तारीख को पापा नियम से बैंक में पैसे डाल देते थे. शायद ही कभी फोन पर कहना पडा हो मां पैसे नहीं आए.

शादी हो गई है. बच्चे हो गए हैं. नई गाड़ी और नया फ्लैट लेने की चिंता है. बॉस को खुश करना है. दोस्तों को गार्डेन पार्टी देनी है. बीवी को छुट्टियों पर गोवा लेकर जाना है.

मां बाप बद्रीनाथ जाने के लिए कई बार कह चुके हैं लेकिन फुर्सत कहां है. ऑफिस बहाना है. समय है लेकिन कौन मां के साथ सर खपाए. बुढ़िया बोर कर देती है नसीहत दे देकर.

पापा ऑफिस के बारे में इतने सवाल करते हैं कि पूछो मत. कौन इतने जवाब दे. शाम को व्हिस्की का एक गिलास लगाना मुहाल हो जाता है. अपने घर में ही छुपते रहो पीने के लिए.

भूल गया पापा अपनी सिगरेट हम लोगों से छुपा कर घर से बाहर ही पीकर आते थे. न जाने हमने कितने सवाल पूछे होंगे मां-बाप से लेकिन शायद ही कभी डांट भरा जवाब मिला हो.

लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है. हमारे बटुओं में सिर्फ़ झूठ है. गुस्सा है...अवसाद है... अपना बनावटी चिड़चिडापन है. उनकी गांठों में आज भी सुख है दुःख है और हम खोलने जाएं तो हमारे लिए आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं.
अगले महीने मदर्स डे है....साल में एक बार मदर्स डे के नाम पर ही एक बार मां के आंचल की गांठें खोलने की ज़रुरत सभी को होनी चाहिए.

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